शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

खुशखबरी खुशखबरी और बडी खुशखबरी
देश में बहुत जल्द आ रहा है महिलाओं का अपना दैनिक अखबार, जो दुनिया का पहला महिलाओं पर आधारित समाचार पत्र होगा ।

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

मासिक धर्म के दौरान लड़कियां मिट्टी व पोलिथीन का करती हैं प्रयोग

देश के सबसे सपन्न और खुशहाल राज्य पंजाब के अमृतसर जैसे शहर के गांवों की लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान एक बड़ी पीड़ा से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उनके पास सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग करने के लिए कोई कपड़ा नहीं होता। आपको यह जानकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन, यह कड़वी सच्चाई उन तीन सगी बहनों की है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि उन तीनों के पास एक ही अंडर गारमेंट है, जिसे वह तीनों आपस में बांटती हैं।
ये कहानी पंजाब के कई इलाकों की तो है ही, देश के बिहार, झारखंड, उड़ीसा, हरियाणा व अन्य राज्यों के ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में भी देखने को मिल जाएगी। गरीबी व कपड़े की कमी के कारण महिलाएं व लड़कियां मासिक धर्म के दौरान मिट्टी, पोलिथीन, राख व अखबार तक को सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग कर लेती है। इससे उनका काम तो किसी तरह चल जाता है लेकिन यह महिलाएं व लड़कियां कई गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो जाती हैं। यह चौंकाने वाला तथ्य महिलाओं के लिए काम करने वाली एक निजी संस्था के हैं, जो लोगों के पुराने कपड़े मांग कर महिलाओं व लड़कियों के लिए सैनेटरी नैपकिन बनाकर बांटने का काम करती है।

अब सवाल यह पैदा होता है जिन लोगों के पास तन ढ़कने के लिए कपड़ा नहीं है, वो मासिक धर्म के दौरान सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग करने के लिए कपड़ा कहां से लाए। इसी तरह की महिलाओं की सहायता के लिए गूंज नामक संस्था जमीन पर उतरी है। संस्था के संस्थापक अंशु गुप्ता कहते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व जब उन्होंने पंजाब में इस दिशा में काम करना शुरू किया तो चौंकाने वाली बातें सामने आईं कि किस तरह एक कपड़े के टुकड़े के लिए लड़कियां व महिलाएं तरस रही है। सबसे पहले उनको जालंधर शहर में मदद वकीलों की तरफ से मिली, जिन्होंने एक पुराने कपड़ों की दुकान पर अपनी पुरानी शर्ट व कोट दे दिए थे। इसी तरह लोग जुडऩे लगे और अपने पुराने कपड़े देने लगे। पंजाब से शुरू हुआ उनका अभियान, हरियाणा, दिल्ली, यूपी, बिहार,उड़ीसा सहित आसपास के कई राज्यों में काम कर रहा है। वह लोगों से उनके पुराने कपड़े एकत्रित करते हैं और उनको साफ करके उनसे सैनेटरी नैपकिन बनवाते हैं। जिनको गरीब व पिछड़े इलाकों की में बंटवाया जाता है। उन्होंने बताया कि इस तरह के मामले सिर्फ गरीब राज्यों में ही नहीं है। देश के कई सम्रद्घ राज्यों में भी महिलाओं को इस तरह सैनेटरी नैपकिन के लिए तरसते देखा जा सकता है। गुप्ता के मुताबिक गरीबी व कपड़े की कमी के कारण महिलाएं व लड़कियां मासिक धर्म के दौरान मिट्टी, पोलिथीन, राख व अखबार तक को सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग कर लेती है। जिससे यह महिलाएं व लड़कियां कई गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो रही है। वे लोगों से यही अपील करते हैं कि वह अपने पुराने कपड़े एकत्रित करके उनकी संस्था तक पहुंचा दे ताकि वह उनको आगे जरूरत मंदों तक पहुंचा सके। किसी के पुराने कपड़े उन महिलाओं के जीवन में खुशी ला सकते हैं जो तन ढ़कने के लिए तरस रही हैं और हर महीने एक प्राकृतिक आपदा की तरह मासिक धर्म को झेल रही हैं। इसलिए वह आम लोगों से आग्रह करते हैं कि गरीब लोगों को सर्दी से बचाने व महिलाओं की मदद करने के लिए अपने पुराने कपड़े एकत्रित करके उनकी संस्था तक पहुंचाएं। संस्था के लिए कैंप आयोजित करने के लिए उनको मेल ऐड द रेट गूंज डॉट आेआरजी पर संपर्क कर सकते है।
देश के बाकी राज्यों से उलट दिलली सरकार ने स्कूली लडकियों के लिए सैनेटरी नैपकिन की अनुठी योजना शुरू
कर एक नई शुरुआत कर दी है। इससे कुछ हद तक गरीब लडकियों को फायदा तो होगा ही। दिलली सरकार की इस पहल की तारीफ करनी चाहिए और देश के सभी राज्यों को इस बारे तक तत्काल सोचना चाहिए।

मंगलवार, 3 मई 2011

..बिन पानी नहीं हो रही शादी



..बिन पानी नहीं हो रही शादी
नई दिल्ली, रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए ना उबरे मोती, मानुष, चून॥! बिना पानी मोती, मनुष्य और चूना ही नहीं रिश्तों के स्रोत भी सूख रहे हैं। वह भी देश की राजधानी दिल्ली में! पानी की कमी से कैर व मितराऊ जैसे गांवों के कई घरों में शहनाई नहीं बज पा रही। बिन ब्याहे युवकों और अधेड़ों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हालत यहां तक पहुंच गई है कि कई परिवार तो दुल्हन खरीद कर लाए हैं। पूरे परिवार को पानी ढोते देख दिल्ली के शहरी क्षेत्र की लड़कियां तो पहले ही यहां ब्याह से कतराती थीं, वहीं अब पड़ोसी राज्य हरियाणा से भी आस टूटने लगी है। नतीजन 18 से 35 वर्ष की उम्र पूरी कर चुके तकरीबन 300 से 400 युवक और अधेड़ बिनब्याहे रह गए हैं। बहू देखने को लालायित कैर गांव की गीता देवी तो इस माटी को ही कोस रही हैं। उनके 3 जवान बेटे बिन ब्याहे जो हैं। बड़ा बेटा 26 साल का है। नौकरी भी करता है, लेकिन पानी की कमी से अब तक रिश्ता न जुड़ सका। बाकी दो लड़के भी शादी के लिए तैयार हैं, लेकिन कैर गांव में रहते उनके भी फेरे होने की संभावना नहीं दिखती। गांव की ही विमला के परिवार में तो 6 लड़के ब्याह के लायक हैं। इनमें से बड़े की उम्र 36 वर्ष है। कहती हैं कि लड़कावाले रिश्ता तो लाते हैं, लेकिन लड़कों को पानी ढोते देख लौट जाते हैं। अब तो वे मजाक भी उड़ाते हैं। यह घर-घर की कहानी है। गांव के धर्मेद्र कुमार के मुताबिक 6 हजार की आबादी वाले गांव में लोग पानी की कमी से अपनी बेटियों का ब्याह नहीं करना चाहते। हालत यह है कि लोग वंश बढ़ाने के लिए अब बिहार, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश की ओर रुख करने लगे हैं। कैर गांव में ही कुछ साल के भीतर 6 और मितराऊ गांव में 10 से 14 दुल्हनें बाहर से आई हैं। गांव के लोग ही नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि बाहर से ब्याह नहीं, बल्कि दुल्हन खरीद कर लाने के भी कई मामले हैं। वैसे बुजुर्ग चौधरी खजान सिंह, चौधरी करतार सिंह, जिले सिंह, रणवीर यादव कहते हैं कि अब तो फिर भी गनीमत है, वरना कई गांव ऐसे थे, जहां रिश्ते बिल्कुल नहीं आते थे। शादी के लिए सिफारिश होती थी। पार्षद कुलदीप सिंह डागर भी सचाई को नहीं झुठलाते। डेढ़ साल पहले उजवा में जल बोर्ड का यूजीआर स्थापित होने से आसपास के करीब 19 गांवों को पीने का पानी मिलने लगा, लेकिन शायद यह शादी के लिए काफी नहीं है!

रविवार, 2 जनवरी 2011

नये साल की शुभकामनाएं


नव वर्ष मंगलमय हो। सभी के लिए अच्‍छी खुशिया लेकर आए, यही कामना है।
सुनील पाण्‍डेय

रविवार, 23 मई 2010

लो अब, गे-स्‍पेशल कॉन्‍डम


लो भैइया, देखो अब इ का हो रहा है।जमाने का देखो चलन कैसे-कैसे…। लो भइया अब सचमुच कलयुग धरती पर उतर आया है। धरती पर जब पुरुष कंडोम उतारा गया तो यह तर्क दिया गया कि ये परिवार नियोजन का सबसे बडा साधन होगा। कुछ हद तक भैइया ये कामयाब भी हुआ। इसके बाद जमाना बदला और आधुनिक लोगों के लिए नई खोज हुई और महिलाओं का कंडोम उतार दिया गया। यहां तक तो ठीक था, क्‍‍योंकि इसका मतलब और मकसद दोनों क्‍‍लीयर था। लेकिन भैइया अब तो हद ही हो गई है। पूछो कैसे, तो सुन लो अब गे-स्‍‍पेशल कॉन्डम बनाने की तैयारी चल रही है। एक कंपनी ने गे कपल्स के लिए स्पेशल कॉन्डम बनाने की प्लानिंग की है। एड्स जैसी बीमारियों के बचाव में कारगर इस कॉन्डम के बाजार में आने से पहले ही इसकी उपयोगिता पर बहस शुरू हो गई है। कोर्ट ने दो एडल्ट समलैंगिकों के बीच सहमति के आधार पर बनने वाले फिजिकल रिलेशन को वैधता दे दी है। ऐसे में अब वे खुलेआम अपनी पहचान जाहिर करने लगे हैं और जाहिर है, ऐसे संबंधों में इजाफा हो रहा है। हालांकि, अपनी सेक्शुअल चॉइस के अनुसार पार्टनर चुनने की आजादी अच्छी बात है, लेकिन इसमें भी शक नहीं कि होमोसेक्शुअलिटी से एड्स जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है। सेक्शुअल डिजीज के मामले में बेहद संवेदनशील देश भारत में पहले से ही 2।31 मिलियन एड्स रोगी मौजूद हैं। ऐसे में, कंपनी ने गे-कपल्स के लिए स्पेशल कॉन्डम बनाने की घोषणा की है। लो अब लो, कहते हैं कि गे कपल्स के बीच बिना कॉन्डम के रिलेशन बनाने से एचआईवी का खतरा बना रहता है, इसीलिए उनके लिए स्पेशल कॉन्डम बनाने की जरूरत महसूस की गई। जानकार मानते हैं कि बाजार में मौजूद कॉन्डम गे कपल्स की जरूरतों के मुताबिक नहीं है। क्या पुरुष होमोसेक्शुअल्स को सचमुच खास कॉन्डम की जरूरत है? गे कम्यूनिटी के एक मेंबर रोहित बताते हैं, 'मैं और मेरा पार्टनर सेक्शुअल डिजीज को लेकर बेहद सावधान रहते हैं। इसलिए रिलेशन बनाते वक्त हम लोग हमेशा कॉन्डम का इस्तेमाल करते हें। लेकिन ऐनल के हार्ड होने की वजह से कई बार कॉन्डम फट जाता है, जिससे सेक्शुअल डिजीज का खतरा बना रहता है। ऐसे में अगर हमारे लिए कोई स्पेशल कॉन्डम बनाया जा रहा है, तो हमें निश्चित रूप से उसका फायदा होगा।' हालांकि, गे कम्यूनिटी के कुछ लोग इस तरह के स्पेशल कॉन्डम का विरोध भी कर रहे हैं। जाने-माने गे ऐक्टिविस्ट कहते हैं, 'मेरी राय में गे कपल्स के लिए स्पेशल कॉन्डम बेहद बेवकूफी भरा प्रयोग है। आपको बता दूं कि यह प्रयोग इससे पहले मैक्सिको में भी हो चुका है, जो पूरी तरह फ्लॉप साबित हुआ है। मैं इस तरह के कॉन्डम बनाने वालों से पूछना चाहूंगा कि हमारे देश में जहां लोग मेडिकल स्टोर से कॉन्डम खरीदकर लाने में ही शर्माते हैं, वहां गे कपल्स अपने लिए स्पेशल कॉन्डोम कैसे खरीदेंगे?' ये सौ फीसदी सच बात है। अभी लोग कंडोम खरीदने में कतराते हैं। आखिर कुछ न कुछ तो करना ही होगा। जानकार कहते हैं कि मौजूदा कॉन्डम में भी कोई कमी नहीं है। कॉन्डम के मामले को लेकर एक कमिटी भी बनी थी, जिसे मौजूदा कॉन्डम में भी कोई कमी नहीं दिखी। दरअसल, ऐनस में चिकनाई नहीं होती, जिस वजह से मौजूदा कॉन्डम ज्यादा देर टिकते नहीं। लिहाजा सरकार को मौजूदा कॉन्डम के साथ ही चिकनाई युक्त जेली के पैकेट उपलब्ध कराने चाहिए।' बंगलोर से जुडे गे समर्थक राजनीश कहते हैं, 'मुझे इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। संबंधित कंपनी की घोषणा से तो ऐसा ही लग रहा है कि वे हमारे हित के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन अभी किसी फैसले तक पहुंचने से पहले हमें उनकी भावना को जांचना होगा।' वहीं, दूसरी ओर इन कॉन्डम से नॉर्मल सेक्शुअल चॉइस वाले लोगों के भी ऐनल सेक्स की ओर आकर्षित होने की आशंका जताई जा रही है।रिलेशनशिप विशेषज्ञ कहते हैं, 'खास तरह के कॉन्डम गे कम्यूनिटी के लिए तो फायदेमंद साबित हो सकते हैं, लेकिन बाकी सोसायटी को इससे नुकसान ही होगा। दरअसल, हमारी सोसायटी में लोग हमेशा नई चीजों को लेकर उत्साहित रहते हैं। ऐसे में वे इस स्पेशल कॉन्डम को भी जरूर आजमाकर देखना चाहेंगे। इस तरह से समाज में समलैंगिकता को बढ़ावा मिल सकता है। हालांकि यह बात बहुतों को हाइपोथेटिकल लग सकती है, लेकिन ऐसा वास्तव में है।'हम तो कहते हैं भैइया इ घोर कलजुग है, कुछ भी हो सकता है। जब समाज में ऐसे ऐडे तिरछे लोग पैदा हो रहे हैं तो उनके कंपनियां क्‍यों‍ पीछे रहें। जब इस प्रजाति के लोग खुलेआम सडकों पर हाथों में हाथ डाले घूम सकते है, तो उन्‍हें कतई शर्म नहीं होगी गे-स्‍पेशल कंडोम खरीदने में। और शर्म हो भी क्‍यों, ये तो अच्‍छी बात है। चलो अच्‍छा है कम से कम उन्‍हें ही देखकर हमारे समाज के लोग बेझिझक होकर कंडोम खरीद तो सकते हैं।
भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा
समलैंगिक प्यार कई भारतीय फिल्मों के लिए इन दिनों एक विषय हो सकता है, लेकिन इस विषय पर 2000 साल से अधिक अवधि तक रची गई रचनाएं बताती हैं कि यह उत्तारोत्तार समृद्ध हुआ है। साहित्य में इसे कई रूपों में स्वीकार किया गया है और यह भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा रहा है।
रूथ वनिता और सलीम किदवई द्वारा संपादित सेम सेक्स लव इन इंडिया: ए लिटरेरी हिस्ट्री भारतीय साहित्य की 2000 साल से अधिक अवधि की रचनाओं में व्यक्त समलैंगिकों के बीच के प्रेम को प्रस्तुत करता है। दोनों ने एक दर्जन से अधिक भाषाओं और हिंदू, बौद्ध, मुस्लिम और आधुनिक काल्पनिक परंपराओं पर इस दृष्टि से काम किया। इसमें धार्मिक पुस्तकों न्यायशास्त्र और काम संबंधी शोध, कथा साहित्य, मध्यकालीन इतिहास आधुनिक उपन्यासों से जीवनी संक्षिप्त कहानी पत्र संस्मरण नाटक और कविताओं को चुना गया है। ऋग्वेद से लेकर विक्रम सेठ, इस्मत चुगतई और भूपेन खाखर जैसे आधुनिक लेखक और कलाकार भी इसमें अपनी मौजूदगी दर्शा रहे हैं। पेंग्विन द्वारा प्रकाशित यह किताब एशियाई और विश्व साहित्य के गहन अध्ययन का अवसर देती है।
पुस्तक के अनुसार भारतीय परंपरा में भी महिला महिला के बीच और पुरूष पुरूष के बीच प्रेम का उल्लेख है। दो लोगों के बीच प्राथमिक और काम आकर्षण चाहे वे पुरूषों या महिलाओं के बीच हो यह शारीरिक संबंधों में बदल भी सकता है और नहीं भी बदल सकता है। वनीता लिखती हैं कि इस वजह से हमारा शीर्षक प्यार पर केंद्रित है न कि शारीरिक संबंध पर।
वे लिखती हैं कि ऐसे कई मामलों में जहां इस तरह के लगाव इतिहास साहित्य या पौराणिक ग्रंथों में मिलते हैं उनमें हमारे पास इसे जानने का कोई जरिया नहीं होता है कि उनमें शारीरिक संबंध था भी या नहीं। (साभार)

रविवार, 8 नवंबर 2009

हिंदी से कमाते हैं, लेकिन बोलते हैं अंग्रेजी


10 वर्ष के संघर्ष का मिला रिजल्‍ट
3 जनवरी 2003 को सुबह 6 बजे टाटा मूरी एक्‍सप्रेस जालंधर सिटी रेलवे स्‍टेशन पर पहुंचती है। प्‍लेटफार्म नंबर एक पर गाडी खडी होती है। उस वक्‍त चारों ओर घने कोहरे की सफेद परत दिखाई दे रही थी। दस फलांग दूर खडे यात्री नजर नहीं आ रहे थे। मै अपना रिबॉक कंपनी का बैग उठाया और नीचे उतरा। चूंकि मै पहली बार जालंधर सिटी पहुंचा था इसलिए हमें ज्‍यादा‍ कुछ जानकारी नहीं थी। ठंड इतनी अधिक थी कि आंख नांक से पानी निकल रहे थे। इससे बचने के लिए एकमात्र सहारा गर्मा गरम चाय थी, जिसकी उस समय जरूरत भी थी। हम चाय की रेहडी की ओर बढे, लेकिन वहां पहले से ही बहुत भीड थी। लोग चाय से लबालब गिलास को दोनों हाथों के बीच कैद करके चुस्कियां ले रहे थे। मैने भी बोला भैया एक कप चाय देना। आसपास खडे लोग पलट कर मेरी ओर बडे आश्‍चर्य से देखे। सभी लोग सरदार थे इसलिए उसमें से एक ने तबाक से बोल दिया कि भैया आ गया। मै वहां की भाषा पंजाबी से अनभिज्ञ था, लिहाजा हमें कुछ समझ में नहीं आया। खैर, चाय पीने के बाद बगल में ही मौजूद पूछताछ खिडकी पर पहुंचे, जहां मैने डारमेट्री के लिए पूछा। वहां मौजूद रेलवे बाबू से हमने हिंदी में कहां भाई साहब हमें दो दिन ठहरना है, क्‍या डारमेट्री मिल जाएगी। बाबू ने अपनी महिला सहकर्मी से हंसकर बोला---लो एक और भैया आ गया। हमने सोचा शायद यहां के लोग भैया सम्‍मान स्‍वरूप बोलते होंगे। खैर उन्‍होंने किराया लिया और चौबीस घंटे के लिए एक बिस्‍‍तर दे दिया। इसके साथ ही मै अखबार के स्‍टाल पर पहुंचा और एक दैनिक जागरण व अमरउजाला खरीदा। उसके बाद कमरे में चला गया। दो घंटे लगाकर मैने दोनों अखबारों को चाट डाला। इससे अंदाजा लग गया कि वहां छपने वाले अखबारों में खबरें कैसे होती हैं और किन ‍शब्‍दों का क्‍या मतलब होता है। उसी दिन शाम को पांच बजे मैं दैनिक जागरण के फोकल प्‍वाइंट कार्यालय पहुंचा। वहां समाचार संपादक श्री कमलेश रघुवंशी से मुलाकात की, जहां उन्‍होंने कल से ज्वाइन को कहा। साथ ही कहा कि कल श्री मनोज तिवारी जी से आकर मिल लेना। शनिवार का दिन था। मै बहुत खुश हुआ और नई पारी शुरू करने के पहले भगवान के दर्शन कर रेलवे स्‍टेशन के उपर बने डारमेट्री में जा पहुंचा। रातभर इंतजार करता रहा कि कब सुबह होगी और मै नौकरी की शुरुआत करूंगा। पंजाब में काम करने की उत्‍सुकता हिलोरे मार रही थी। सुबह हुई और मै अखबार के स्‍टाल पर पहुंच गया। दैनिक जागरण खरीद कर लाया और पूरा अखबार बारीकी से चाट डाला। दोपहर के 12 बजते ही तैयार होकर फोकल प्‍वाइंट के लिए रिक्‍शा थाम लिया। आधे घंटे में रिक्‍शा दैनिक जागरण के गेट पर पहुंचा। वहां पहुंचने पर पूरा ढांचा समझा। कई चीजें हमें नई लग रही थी। उस वक्‍त अधिकारी कोई नहीं थे। डेस्‍क पर हिमाचल प्रदेश का अखबार तैयार करने वाली टीम जुटी थी। वहां जयंत शर्मा से मुलाकात हुई। वह हिमाचल के प्रभारी थे और बडे हंसमुख इंसान हैं। अपना परिचय दिया और उनके काम को देखने लगा। चूंकि मुझे डेस्‍क का अनुभव नहीं था, इसलिए हम डेस्‍क की बारीकियां समझने लगे। दूसरे दिन हम अपने पारिवारिक मित्र जसवीर सिंह बडैच के घर पहुंचे। वहां उनके छोटे भाई और पंजाब के सबसे बडे हास्‍य कलाकार गुरप्रीत सिंह घुग्‍गी से मुलाकात हुई। उनका पूरा परिवार पंजाबी बोल रहा था। एकाध लोग ऐसे थे जो हमारे साथ हिंदी बोलने का प्रयास कर रहे थे। उनकी भाषा हमारे पल्‍ले नहीं पड रही थी और हमारी हिंदी उनके। बावजूद इसके खाने के टेबल पर जब हम बैठे तो घुग्‍गी से पूछा कि यहां लोग भैया क्‍यों बोलते हैं। वह हंस पडे, बाकी लोग भी हंसे लेकिन कोई उत्‍तर नहीं दिया। तब तक काफी रात हो चुकी थी। घुग्‍गी ने कहा रात यहीं रुक जाईये लेकिन हमने कहां नहीं हम स्‍टेशन पर बने सरकारी गेस्‍ट हाउस जाएंगे। खैर, घुग्‍गी की मम्‍मी और पापा हमें स्‍टेशन छोडने आए। मुझसे रहा नहीं गया और हमने फीर पूछा कि आखिर भैया क्‍यों बोलते हैं। उन्‍होंने एक बार लम्‍बी सांस खींची और बोला कि उत्‍तर प्रदेश एवं बिहार से आने वाले लोगों को यहां भैया बोला जाता है, चाहे वह सब्‍जी वाला हो या आईएएस। मुझे सच्‍चाई समझने मे देर नहीं लगी और मेरा दिमाग सीधे जालंधर से मुंबई पहुंच गया। क्‍योंकि मुबंई में भी बसे यूपी के लोगों को वहां भैया कहा जाता है। मुबंई की सेम स्थि‍त पंजाब की है जहां हिंदी बोलते ही लोग भैया कहने लगते है। वहां ज्‍यादातर लोग पंजाबी बोलते है। अगर ज्‍यादा पढे लिखे है तो अंग्रेजी, लेकिन हिंदी में बोलना अपमान समझते थे। मुझे लगा तो बुरा लेकिन मै कर भी कुछ नहीं सकता था, क्‍योंकि पंजाब में पंजाबी भाषा ही बोली जाती है। हां भारत सरकार के दफ़तरों में कुछ किया जा सकता था, लिहाजा मैने मन में ठान लिया कि हिंदी के लिए कुछ करना जरूरी होगा। तीन साल किसी तरह से जालंधर बिताने के बाद अम्रितसर संस्‍‍करण की शुरुआत हुई, जहां हमें गुरुनगरी रिपोटिंग में भेज दिया गया। इस बीच मै पंजाबी पूरी तरह से समझने लगा था और टूटी फूटी पंजाबी भाषा बोलने भी लगा। अम्रितसर जालंधर से ज्‍यादा पंजाबी बोली जाती है। लिहाजा मै अपने लोगों में पंजाबी बोलने की कोशिश करता था, इसलिए की हमें भी यह भाषा आ जाए। बाकी हिंदी के लिए संघर्ष करता रहा। मुझे रेलवे, कारोबार की बीट मिली। रेलवे चूंकि भारत सरकार का महकमा है, इसलिए वहां हिंदी अनिवार्य है। लेकिन कोई भी कर्मचारी हिंदी में काम नहीं करते थे। मैने पहले पूरा ढांचा समझा और एक एक विभागों के खिलाफ छेड दिया अभियान। भारतीय जीवन बीमा निगम, राष्‍ट्रीय बैंक, इनकम टैक्‍स सहित सभी विभागों के खिलाफ हिंदी में काम न करने के लिए जबरदस्‍त काम किया। इस बीच भारत सरकार की हिंदी राजभाषा संसदीय टीम वहां पहुंची। मैने उनके समक्ष यह मुददा उठाया कि यहां लोग न तो हिंदी में काम करते हैं और न ही हिंदी में बोलते हैं। यहां तक कि रेलवे स्‍टेशन के पूछताछ काउंटर पर बैठे कर्मचारी भी पंजाबी में बात करते हैं। सांसदों ने इसपर रेलवे को फटकार भी लगाई। एक दिन तो अजीब वाक्‍या हो गया। एक एयरहोस्‍टेज इंस्‍टीट़यूट में अभिनेत्री नेहा धूपिया आई थी। कार्यक्रम कवर करने मैं पहुंचा। कमरा पत्रकारों से खचाखच भरा था। बैठने के लिए कुर्सी नहीं मिली, लेकिन सबसे पीछे खडे होने की जगह जरूर मिल गई। मै कुछ देर खामोश रहा, लेकिन जब नेहा धूपिया की आवाज कानों तक नहीं पहुंची तब मै बोला कि जरा तेजी से बोलिए। इसके बाद नेहा माइक से बोलने लगी। वह अंग्रेजी में बोल रही थीं। लिहाजा मैने उन्‍हें हिंदी में बोलने को कहा। इतने पर आयोजक बीच में बोल पडे। मैने उनका जबाव देते हुए नेहा धूपिया से कहा कि आप तो अच्‍छी हिंदी बोल लेती हैं तो यहां अंग्रेजी क्‍यों बोल रही हैं। वैसे भी आप हिंदी से कमाते हैं, लेकिन बोलती हैं अंग्रेजी। इतना कहते ही सब खामोश हो गए और नेहा धूपिया हिंदी में बोलना शुरू हो गई। साथी कुछ पत्रकारों ने इसे ठीक कहा। बस इसके बाद हर जगह प्रेस कांफ्रेंस हो या सेमिनार हिंदी में बोलने पर दबाव बनाया जाता रहा। लोग बोलने भी लगे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि जैसे लोग हिंदी में बोलना अपना अपना समझ रहे थे। खैर कुछ भी हो हमारा कारवां आगे बढता गया। इस बीच एक निजी इंश्‍योरेंस कंपनी की कांफ्रेंस में दो दिन मुझे शिमला जाने का मौका मिला। ग्रामीण इलाकों में कैसे जीवन बीमा लोगों तक पहुंचाया जाए और प्रोडक्‍ट बेचा जाए इसी पर चर्चा हो रही थी। कांफ्रेंस में लगभग सभी वक्‍ता अंग्रेजी में भाषण दे रहे थे। एक दिन मै खामोशी से सुनता रहा। दूसरे दिन कांफ्रेंस के बीच में ही मै बोल पडा। कंपनी के अधिकारियों से छोटा सा सवाल किया कि आखिर आप जीवन बीमा का प्रोडक्‍ट पंजाब, हिमाचल, जम्‍मू कश्‍मीर, हरियाणा एवं उत्‍तर प्रदेश के गांवों में बेचने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन वहां तो लोगों को अंग्रेजी आती नहीं। अगर आप इसे हिंदी में बोलते तो क्‍या ठीक न होता। एकाएक तो किसी को समझ में ही नहीं आया कि आखिर मै बोल क्‍या रहा हूं। थोडी ही देर में कंपनी के उपाध्‍यक्ष (वाइस प्रेसीडेंट) जो बिहार से ताल्‍लुक रखते हैं, खडे होकर हिंदी में बोलना शुरू कर दिया। उन्‍होंने हमारे सवाल का सम्‍मान किया और बाकी सत्र हिंदी में ही बोला। सेमिनार खत्‍म होने के बाद सभी ने व्‍यक्तिगत रूप से मिलकर इसका समर्थन किया।
वैसे यह उनकी गलती नहीं है। क्‍योंकि आजकल के लोग हिंदी में बोलना ही अपना अपमान समझते है। यही कारण है कि वह आज भी अंग्रेजों के गुलाम हैं। अंग्रेज तो चले गए, लेकिन वह अपनी भाषा यहां छोड गए। हिंदी का परचम अम्रितसर में लहराने के बाद 9 दिसम्‍बर 2008 को मै देश की राजधानी दिल्‍ली पहुंच गया। यहां भी मेरा सफर जारी रहा। दिल्‍ली में वैसे तो सभी भाषाओं का संगम है, लेकिन ज्‍यादातर वीआईपी एवं सरकारी अधिकारी अंग्रेजी में बोलते हैं। ऐसा नहीं कि यहां लोगों को हिंदी नहीं आती। सभी को आती है और घरों में बोलते भी हैं, लेकिन कार्यालया में बोलते वक्‍त अपमान समझते हैं। यहां तक कि वह कार्यालय में अंग्रेजी अखबार सजा कर रखते हैं। हिंदी अखबार भी लेते हैं, लेकिन उसे चोरी से पढते हैं। या तो बाथरूम में या फीर कार्यालय जाते समय गाडी में पढते हैं। दिल्‍ली में काबिज 80 फीसदी अधिकारियों के साथ यही आलम है। वह चोरी से हिंदी अखबार पढते हैं।
हिंदी क्षेत्र से जुडे लोग खुद हिंदी को पीछे ढकेल रहे हैं। लेकिन दैनिक जागरण ने काफी हद तक हिंदी को अपनाया है। यहां तक कि अंग्रेजी के शब्‍दों के इस्‍तेमाल तक पर पाबंदी लगा दी गई हे। यह एक अच्‍छा कदम है। हिंदी को बचाने के लिए जारी मेरे संघर्ष को उस दिन बल मिला जब राजधानी की एक निजी संस्‍था ने मुझे हिंदी पत्रकारिता का सम्‍मान दिया। दिल्‍ली के 'परिवर्तन जन कल्‍याण समिति' नामक संस्‍था ने राजधानी के मंडी हाउस स्थित त्रिवेणी कला संगम आडिटोरियम में 'हिंदी महाकुंभ व साहित्‍य सृजन सम्‍मान सम्‍मेलन -2009' का आयोजन किया। इस मौके पर मुझे हिंदी पत्रकारिता सम्‍मान से नवाजा। 10 वर्ष से हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने के बाद मिला यह सम्‍मान मेरे लिए बहुत महत्‍वपूर्ण रखता है। सम्‍मान देने वाली हस्तियों भारत में मॉरीशस के उच्‍चायुक्‍त मुखेश्‍वर चूनी, पूर्व सांसद डा. रत्‍नाकर पाण्‍डेय, भारत के पूर्व मुख्‍य निर्वाचन आयुक्‍त डा. जीवीजी क्रिष्‍णमूर्ति, कुरुकुल कांगडी के पूर्व कुलपति डा. धर्मपाल ने मुझे और मेरे संघर्ष को सलाम किया। साथ ही कहा कि हिंदी को जन जन की भाषा बनाने के लिए संघर्ष को जारी रखना होगा। मैने सिर्फ इतना कहा कि देश में लाखों लोग ऐसे हैं जो … हिंदी से कमाते हैं, लेकिन बोलते हैं अंग्रेजी।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

दिल्‍ली.....दारू.....और डीएल

सावधान पीने वालों....
देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर अगर आप शराब पीकर अब भी गाड़ी चला रहे हैं या चलाने की कोशिश में हैं तो सावधान हो जाएं। क्योंकि, अगला निशाना आप हो सकते हैं। दिल्ली परिवहन विभाग और यातायात पुलिस अब आपको किसी भी सूरत में छोड़ने के मूड में नहीं है। क्योंकि, पिछले सप्‍ताह एक दिन के आपरेशन ड्रंक एंड ड्राइव में पकड़े गए 301 पियक्कड़ों में से 150 ड्राइवरों पर आज गाज गिर गई। परिवहन विभाग ने डेढ़ सौ अंगूर की बेटी के आशिकों का ड्राइविंग लाइसेंस (डीएल) कैंसिल कर दिया। बाकी बचे ड्राइविंग लाइसेंस की जांच पड़ताल की जा रही है। बहुत जल्द उन्हें भी कैंसिल कर दिया जाएगा। इसके साथ ही विभाग ने पियक्कड़ों के खिलाफ जो योजना बनाई थी, उसे अमलीजामा पहना दिया। दिल्ली परिवहन विभाग देश का पहला ऐसा महकमा बन गया जिसने लोगों की शेफ्टी को ध्यान में रखते हुए इतना बड़ा कदम उठाया हो। भले ही यह कदम उसे अदालत के आदेश या सुझाव पर उठाने पड़ रहे हों, लेकिन है स्वागत योग्य। क्योंकि, राजधानी में आए दिन हो रही सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सबसे अच्छा तरीका यही है। पियक्कड़ों की बदौलत ही सड़क दुर्घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। इनके खिलाफ कानूनन पहले भी कार्रवाई होती थी, लेकिन सिर्फ चालान या फिर जुर्माना। वह भी मात्र 2 हजार रुपए। रईसजादों के लिए यह छोटी बात थी, जिसकी वह परवाह नहीं करते। लेकिन अब वह नहीं बच पाएंगे। दिल्ली यातायात पुलिस और परिवहन विभाग प्रत्येक शुक्रवार और शनिवार की रात प्रमुख चौराहों पर एल्को मीटर लेकर उनका स्वागत करते मिलेगा। परिवहन विभाग की माने तो शराब पीएं जरूर लेकिन घर में बैठकर। अगर वह पीकर सड़क पर निकले तो दोबारा गाड़ी चलाने (ड्राइवरी) के लायक नहीं बचेंगे। मोटर वाहन अधिनियम 1988 के सेक्शन 19 एवं केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम 1989 के सेक्शन 21 के तहत ड्राइविंग लाइसेंस जब्त कर उसे कैंसिल कर दिया जाएगा। इस संबंध में परिवहन आयुक्त आरके वर्मा की माने तो पहले चरण में 150 वाहन चालकों का डीएल कैंसिल कर दिया है। बाकी 151 की पड़ताल हो रही है, रिपोर्ट मिलते ही उसे भी रद्द कर दिया जाएगा। उनकी माने तो दर्जनों पकड़े भी जाते हैं और उनका चालान भी होता है, जुर्माना भी भरते हैं और शर्मिदा भी होते हैं, लेकिन मानता कौन है। क्योंकि, यह दिल्ली है। लेकिन अब चालान और जुर्माना लेंगे ही नहीं। सीधे डीएल जब्त कर लेंगे। डीएल नहीं तो गाड़ी होगी जब्त, दिल्ली पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर (ट्रैफिक) एसएन श्रीवास्तव की माने तो राजधानी में बगैर ड्राइविंग लाइसेंस के गाड़ी चलाई तो चालान नहीं होगा बल्कि गाड़ी ही बाउण्ड हो जाएगी। शराब पीकर पकड़े गए जिन लोगों का डीएल जब्त या कैंसिल हो रहा है, उनपर खास नजर रखी जाएगी। उनके वाहनों का खाका खींच लिया गया है, अगर वह कहीं भी नजर आते हैं तो गाड़ी हमेशा के लिए जब्त हो जाएगी।

परदेशियों व दूसरे राज्यों के पियक्‍कडो का भी डीएल होगा कैंसिल
दिल्ली परिवहन विभाग राजधानी वासियों के बाद अब अन्य राज्यों के लोगों पर भी शिकंजा कसने की तैयारी में है। उसकी नजर में कानून सभी के लिए एक है। अगर वह दिल्ली की सड़कों पर शराब पीकर गाड़ी चलाता है तो बचेगा नहीं। वाहन चलाने का अधिकार उससे हमेशा के लिए छिन जाएगा। फिलहाल दिल्ली में तो वह गाड़ी नहीं ही चला पाएगा। दिल्ली परिवहन विभाग ने राजधानी में रहने वाले देश के अन्य प्रदेशों के लाखों लोगों को सलाह और चेतावनी दी है कि वह शराब पीकर गाड़ी न चलाएं। अगर वह पीकर सड़क पर निकले तो दोबारा गाड़ी चलाने (ड्राइवरी) के लायक नहीं बचेंगे। इसके लिए दूसरे प्रदेशों के नंबर वाले वाहनों पर भी विभाग पैनी नजर रखेगा। पीकर गाड़ी चलाने वाले ड्राइवरों पर जुर्माना 2000 रुपये है। यही कारण है कि एक-दो बार पकड़े जाने के बाद भी लोग नहीं मानते और फिर गलती कर बैठते हैं। इसलिए इस बार जुर्माना की रकम और चालान नहीं लिया जाएगा। मोटर वाहन अधिनियम 1988 के सेक्शन-19 एवं केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम 1989 के सेक्शन-21 के तहत दूसरे राज्यों के वाहन चालकों का ड्राइविंग लाइसेंस जब्त कर उसे कैंसिल किया जाएगा। इस कानून के तहत डीएल कैंसिल करने का अधिकार उसी अथारिटी को है, जिसने लाइसेंस जारी किया होगा। जैसे दिल्ली में बने ड्राइविंग लाइसेंस को पकड़े जाने पर उसे कैंसिल करने का अधिकार दिल्ली परिवहन प्राधिकरण को होगा। इसी तरह जिस राज्य से ड्राइविंग लाइसेंस बना होगा, दिल्ली परिवहन विभाग उस संबंधित अथारिटी को जब्त किए गए डीएल को स्थगित करने के लिए रिकमेंट करेगा। किसी भी सूरत में शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों को छोड़ेंगे नहीं। दिल्ली यातायात पुलिस के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर ड्रंक एंड ड्राइव चलाएंगे। मौके पर एल्को मीटर की रिपोर्ट आते ही डीएल जब्त कर लिया जाएगा, क्योंकि राजधानी की सड़कों पर शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों की वजह से आए दिन दुर्घटनाएं हो जाती हैं।