मंगलवार, 29 नवंबर 2011

मासिक धर्म के दौरान लड़कियां मिट्टी व पोलिथीन का करती हैं प्रयोग

देश के सबसे सपन्न और खुशहाल राज्य पंजाब के अमृतसर जैसे शहर के गांवों की लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान एक बड़ी पीड़ा से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उनके पास सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग करने के लिए कोई कपड़ा नहीं होता। आपको यह जानकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन, यह कड़वी सच्चाई उन तीन सगी बहनों की है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि उन तीनों के पास एक ही अंडर गारमेंट है, जिसे वह तीनों आपस में बांटती हैं।
ये कहानी पंजाब के कई इलाकों की तो है ही, देश के बिहार, झारखंड, उड़ीसा, हरियाणा व अन्य राज्यों के ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में भी देखने को मिल जाएगी। गरीबी व कपड़े की कमी के कारण महिलाएं व लड़कियां मासिक धर्म के दौरान मिट्टी, पोलिथीन, राख व अखबार तक को सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग कर लेती है। इससे उनका काम तो किसी तरह चल जाता है लेकिन यह महिलाएं व लड़कियां कई गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो जाती हैं। यह चौंकाने वाला तथ्य महिलाओं के लिए काम करने वाली एक निजी संस्था के हैं, जो लोगों के पुराने कपड़े मांग कर महिलाओं व लड़कियों के लिए सैनेटरी नैपकिन बनाकर बांटने का काम करती है।

अब सवाल यह पैदा होता है जिन लोगों के पास तन ढ़कने के लिए कपड़ा नहीं है, वो मासिक धर्म के दौरान सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग करने के लिए कपड़ा कहां से लाए। इसी तरह की महिलाओं की सहायता के लिए गूंज नामक संस्था जमीन पर उतरी है। संस्था के संस्थापक अंशु गुप्ता कहते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व जब उन्होंने पंजाब में इस दिशा में काम करना शुरू किया तो चौंकाने वाली बातें सामने आईं कि किस तरह एक कपड़े के टुकड़े के लिए लड़कियां व महिलाएं तरस रही है। सबसे पहले उनको जालंधर शहर में मदद वकीलों की तरफ से मिली, जिन्होंने एक पुराने कपड़ों की दुकान पर अपनी पुरानी शर्ट व कोट दे दिए थे। इसी तरह लोग जुडऩे लगे और अपने पुराने कपड़े देने लगे। पंजाब से शुरू हुआ उनका अभियान, हरियाणा, दिल्ली, यूपी, बिहार,उड़ीसा सहित आसपास के कई राज्यों में काम कर रहा है। वह लोगों से उनके पुराने कपड़े एकत्रित करते हैं और उनको साफ करके उनसे सैनेटरी नैपकिन बनवाते हैं। जिनको गरीब व पिछड़े इलाकों की में बंटवाया जाता है। उन्होंने बताया कि इस तरह के मामले सिर्फ गरीब राज्यों में ही नहीं है। देश के कई सम्रद्घ राज्यों में भी महिलाओं को इस तरह सैनेटरी नैपकिन के लिए तरसते देखा जा सकता है। गुप्ता के मुताबिक गरीबी व कपड़े की कमी के कारण महिलाएं व लड़कियां मासिक धर्म के दौरान मिट्टी, पोलिथीन, राख व अखबार तक को सैनेटरी नैपकिन के तौर पर प्रयोग कर लेती है। जिससे यह महिलाएं व लड़कियां कई गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो रही है। वे लोगों से यही अपील करते हैं कि वह अपने पुराने कपड़े एकत्रित करके उनकी संस्था तक पहुंचा दे ताकि वह उनको आगे जरूरत मंदों तक पहुंचा सके। किसी के पुराने कपड़े उन महिलाओं के जीवन में खुशी ला सकते हैं जो तन ढ़कने के लिए तरस रही हैं और हर महीने एक प्राकृतिक आपदा की तरह मासिक धर्म को झेल रही हैं। इसलिए वह आम लोगों से आग्रह करते हैं कि गरीब लोगों को सर्दी से बचाने व महिलाओं की मदद करने के लिए अपने पुराने कपड़े एकत्रित करके उनकी संस्था तक पहुंचाएं। संस्था के लिए कैंप आयोजित करने के लिए उनको मेल ऐड द रेट गूंज डॉट आेआरजी पर संपर्क कर सकते है।
देश के बाकी राज्यों से उलट दिलली सरकार ने स्कूली लडकियों के लिए सैनेटरी नैपकिन की अनुठी योजना शुरू
कर एक नई शुरुआत कर दी है। इससे कुछ हद तक गरीब लडकियों को फायदा तो होगा ही। दिलली सरकार की इस पहल की तारीफ करनी चाहिए और देश के सभी राज्यों को इस बारे तक तत्काल सोचना चाहिए।

मंगलवार, 3 मई 2011

..बिन पानी नहीं हो रही शादी



..बिन पानी नहीं हो रही शादी
नई दिल्ली, रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए ना उबरे मोती, मानुष, चून॥! बिना पानी मोती, मनुष्य और चूना ही नहीं रिश्तों के स्रोत भी सूख रहे हैं। वह भी देश की राजधानी दिल्ली में! पानी की कमी से कैर व मितराऊ जैसे गांवों के कई घरों में शहनाई नहीं बज पा रही। बिन ब्याहे युवकों और अधेड़ों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हालत यहां तक पहुंच गई है कि कई परिवार तो दुल्हन खरीद कर लाए हैं। पूरे परिवार को पानी ढोते देख दिल्ली के शहरी क्षेत्र की लड़कियां तो पहले ही यहां ब्याह से कतराती थीं, वहीं अब पड़ोसी राज्य हरियाणा से भी आस टूटने लगी है। नतीजन 18 से 35 वर्ष की उम्र पूरी कर चुके तकरीबन 300 से 400 युवक और अधेड़ बिनब्याहे रह गए हैं। बहू देखने को लालायित कैर गांव की गीता देवी तो इस माटी को ही कोस रही हैं। उनके 3 जवान बेटे बिन ब्याहे जो हैं। बड़ा बेटा 26 साल का है। नौकरी भी करता है, लेकिन पानी की कमी से अब तक रिश्ता न जुड़ सका। बाकी दो लड़के भी शादी के लिए तैयार हैं, लेकिन कैर गांव में रहते उनके भी फेरे होने की संभावना नहीं दिखती। गांव की ही विमला के परिवार में तो 6 लड़के ब्याह के लायक हैं। इनमें से बड़े की उम्र 36 वर्ष है। कहती हैं कि लड़कावाले रिश्ता तो लाते हैं, लेकिन लड़कों को पानी ढोते देख लौट जाते हैं। अब तो वे मजाक भी उड़ाते हैं। यह घर-घर की कहानी है। गांव के धर्मेद्र कुमार के मुताबिक 6 हजार की आबादी वाले गांव में लोग पानी की कमी से अपनी बेटियों का ब्याह नहीं करना चाहते। हालत यह है कि लोग वंश बढ़ाने के लिए अब बिहार, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश की ओर रुख करने लगे हैं। कैर गांव में ही कुछ साल के भीतर 6 और मितराऊ गांव में 10 से 14 दुल्हनें बाहर से आई हैं। गांव के लोग ही नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि बाहर से ब्याह नहीं, बल्कि दुल्हन खरीद कर लाने के भी कई मामले हैं। वैसे बुजुर्ग चौधरी खजान सिंह, चौधरी करतार सिंह, जिले सिंह, रणवीर यादव कहते हैं कि अब तो फिर भी गनीमत है, वरना कई गांव ऐसे थे, जहां रिश्ते बिल्कुल नहीं आते थे। शादी के लिए सिफारिश होती थी। पार्षद कुलदीप सिंह डागर भी सचाई को नहीं झुठलाते। डेढ़ साल पहले उजवा में जल बोर्ड का यूजीआर स्थापित होने से आसपास के करीब 19 गांवों को पीने का पानी मिलने लगा, लेकिन शायद यह शादी के लिए काफी नहीं है!

रविवार, 2 जनवरी 2011

नये साल की शुभकामनाएं


नव वर्ष मंगलमय हो। सभी के लिए अच्‍छी खुशिया लेकर आए, यही कामना है।
सुनील पाण्‍डेय